Wednesday 26 April 2017

बाबा




अलसाई सी गर्मी की शाम है
घड़ी पर ठीक चार बजे हैं
एक नज़र जब चारो ओर देखती हूँ 
तो सब मीठी नींद में सो रहे है
कहीं खाली सोफा, तो कहीं सिकुड़ा सा लिहाफ
मेज़ पे रखा एक अदना सा ऐनक
तो कहीं जूते के अंदर ठूसा हुआ कल का पहना जुराब
अजीब सन्नाटा है।
रसोई से उबलते हुए पानी की खौल धीमे धीमे तेज़ हो रही है
बाबा चाय बना रहे हैं, ब्लैक टी,
आधी चम्मच चीनी,
दूर तक फैलती चाय की खूशबू
वही केतली
इसी वक़्त
हर रोज़
अपना सन्नाटा तोड़ते जीवन से रूबरू होती है
अपने थके कंधो और झुर्रियों भरे हाथों में
जीवन समेटे, चाय पीते,
मेरे बाबा
60 का दशक
एरिज़ोना स्टेट यूनिवरसिटि के कैम्पस में
विलक्षण प्रतिभा का स्वामी, सपनों की पोटली लिए नवयुवक
पराए देश में अपना कीर्तिमान बनाता हुआ,
अगल बगल गोरी मेम,
सफ़ेद घोड़े पर सवार, काऊबॉय hat, हाथ में बीयर,
पीले चार पहिये की नयी कार,
Green कार्ड,
हसीन शाम, रंगीन यादें
वो, मेरे बाबा
और समय फेरते हुए हवा का एक झौका
लाचार माँ, बुजुर्ग पिताजी, बहने, शहर में आधा बना एक मकान, टूटी इमारत,
नाज़ुक कंधों पर सबकी बलाएँ लिए
हसते हुए अपने सपनों को अलविदा कह
जिम्मेदारियों के सुरंग में डूबते,
मेरे बाबा
सन 1985 में खरीदी हल्के हरे रंग की बजाज स्कूटर
पर छरहहरा शरीर, पैंट-बुशर्ट-टाई डाले,
चिलचिलाती धूप और आँखों पर काला गोग्लस,
समय के आगे चलते, मेरे बाबा
स्कूटर पर पीछे नन्ही फ्रॉक पर दो चुटिया बनाए
उन्हे ज़ोर से कमर पर पकड़ कर बैठी हुई मैं
एक इंच से कम फासले में उम्र भर के सुरक्षा चक्र में
मुझे समेटे,
मेरे बाबा
मंदिर में दर्शन के लिए सारे परिवार को अंदर भेज
खुद बाहर खड़े जूतों की रखवाली करते, बाबा
सड़क पर चलने वाले नासमझ युवक के फेके हुए केले के छिलकों को
हाथ से उठाकर dustbin में फेकते, बाबा
विश्वविद्यालय के छात्र नेता के तमंचे की धमकी पर
अकेले खडे रह गलत के खिलाफ न्याय की आवाज़ उठाते, Prof. साहब, बाबा
और अपनी दोनों बेटीयो को साथ बिठाकर किताबों की दुनिया में
वेबर, Marx, Udao-Munda की सैर कराते, प्यारे बाबा
मनचली बड़ी ने स्वयंवर की ज़िद जो ठानी
उसके निर्णय को परिणय बना, सपनों को अंजाम देते, बाबा
हार कर जो रो पड़ी मैं तूफानो की चोट से
मेरी हिम्मत, मेरी ताकत, मेरी पहचान याद दिलाते, मेरे बाबा
चमड़ी के चीथड़े और खून की जो धार बही मेरे शरीर से,
अपने सफ़ेद कुर्ते से पोंछते, घाव के हर निशान से जीवन सिखाते, कैसे बाबा?
बढ़ते रहना, बहते रहना, सच्चे बन कर लड़ते रहना
जब हो तुम, जहां हो तुम, कर्म पथ का अलख बजाते, कर्मपंथी बाबा
अब मैं बड़ी हो गयी, वो भी बूढ़े हो चले
अब मैं अकेली चल रही, वो मगर कहीं ठहर गए
पाँव में उनके वो ताकत नहीं, स्टील की एक लंबी rod हैं
पर सपने अभी भी बुनते हैं, लिखते हैं, पढ़ते है
हर रोज़ दाई अक्षर जोड़ते हैं
मलयाली सीख रहे है, छोटे दामाद को घर में दिखाना है
Facebook और twitter करते हैं, grand-daughters को भी तो सीखाना है
घर का छोटा कोना है, पुराना laptop है,
अनगिनत किताबें, sheaffer के fountain पेन, आधे लिखे कागज के पुलिंदे
और अभी भी, उठते-गिरते, हर रोज़ बनते, उनके छोटे छोटे सपने।
रसोई से उबलते हुए पानी की खौल
आज फिर से धीमे धीमे तेज़ हो रही है
चार बज चुके हैं
वो जहां भी है, चाय बना रहे होंगे,
वही केतली
इसी वक़्त
अपना सन्नाटा तोड़ते जीवन से रूबरू होती है
अपने थके कंधो और झुर्रियों भरे हाथों में
जीवन समेटे, चाय पीते
वो, मेरे बाबा।
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